By Arun Kumar Singh
सुखी धरती पर वो वर्षा
से वह बदला रुप यूँ
वह यूँ तो था भुमी मरु सा
अब हो गया कानन सा ज्यों
जाने कहाँ से दादुरों के
दल पे दल आने लगे
मतवाले होकर प्रणय मद में
उग्र स्वर गाने लगे
टीप टीप का स्वर धीमा हुआ
चली हवा तब यूँ वेग से
छलक गया उन पत्तियों से
संचीत जो जल, आवेग से
कभी कभी उन बादलों से
हो स्वतंत्र चंद्रमा आता है
असंख्य दर्पण से सुशोभित
दृश्य मनोरम लाता है
वह घर के बाहर जल की धारा
कागज के नावों से हँसी
वह दौड़ता निश्छल शिशु
किचड़ से सनने की खुशी
अबके यह पक्की सड़क
यूँ पी गई बरसात कों
दादुर वो कैसे खो गये
गाते नहीं अब रात को
है किताबों में दबी
बचपन की प्यारी सी हँसी
काश पल वो लौट आता
जब निष्छन्द थी अपनी खुशी
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Mother Gaia'
Read a poem in hindi after so long and it is beautifully written down bro
काश वो दिन लौट आते, काश हम बचपन फिर एक बार जी पाते। उत्कृष्ट रचना।