हज़ार पतंगों का खेल

BY YASHOVARDHAN SINGH



लिखुँ तराज़ू सा तराज़ू मेरी ज़िंदगी।
हाज़ार धागे हाथ में हज़ारवीं है ज़िंदगी।
पकड़ने को हज़ार पर हैं दस ही मेरी उंगलियां,
की कौनसा धागा छोडूं मैं की पास आये ज़िंदगी।

किताब राखी टेबल पर उलटी और मैं कुरेदूँ दिमाग अपना।
गिटार पड़ा है बिस्तर पर अकेला मैं क़ैद रखूं अलाप अपना।
खिडकी भी रखूं बंद की आवाज़ें बाहर की बाहर ही रहें।
टेबल लैंप तो ऑन रखा मगर फूंक दिया चिराग अपना।

तरकश के तीर बिखरे पड़े हैं प्रत्यंचा भी टूटी रखी है।
तलवार की धार बरसों पुरानी और म्यान भी रूठी रखी है।
दोस्तोँ के तीर छाती पर नजाने कलेजा कैसे छूट गया?
धागों से छलनी उँगलियों की इज़्ज़त भी लूटी राखी है।

जो धागे की होड़ थी उसी होड़ ने गर्दन मेरी जकड़ के रख ली।
ज़िन्दगी के हर एक पहलु ने ही ज़िन्दगी मेरी पकड़ के रख ली।
हवा का झोंका कब आंधी बनकर आया मुझे मालूम न पड़ा।
घुटने के बल फिर गिरा वहां मैं सांसें मेरी अकड़ के रख लीं।

फिर पूछा मुझसे झौंके ने कि है भी क्या तू आखिर ज़िंदा?
है इंसानों में शामिल तू या बोलूं तुझको काफिर ज़िंदा?
कि ज़िंदा तो शहसवार भी है।
और ज़िंदा तो होशियार भी हैं।
हैं ज़िंदा सारे जंग-ए-यार।
और ज़िंदा भी हैं ना-बकार।
जो घुंटनो के बल चलें हैं ज़िंदा वो भी।
जो कट-कट के सर चलें हैं ज़िंदा वो भी।
और रो रो के जो जियें वो भी ज़िंद,
हंस हंस के जो मारें वो भी ज़िंदा।
और ज़िंदा तू साँसों से नहीं,
न ज़िंदा तू ख़्वाबों से है।
और ज़िंदा तो धड़कन से तू हरगिज़ नहीं।
क्या ज़िंदा तू यारों मे है?

मेरे घुटने गीली घास में कस गये।
और खून से लबाबाब हाथ भी उसी मिटटी में धंस ज्ञे।
ठकी पीठ ने आराम की चीख लगाई।
और मस्तिष्क के सारे तार हैवानियत में हंस गये।

हवा का झौंका पीछे मेरे आंधी बनने को राज़ी था।
एक छलांग पर्वत से नीचे फिर तो बस हाफ़िज़ मेरा क़ाज़ी था।
कया मैं अब जुंग-हरा था?
क्या यहीं तक कहानी मेरी थी?
क्या अधूरे सारे वादे मेरे?
और ख़्वाबों की अलमारी अँधेरी थी?
क्या उँगलियों में इतना ही ज़ोर था की हज़ार डोरियन काट जाएँ?
क्या मस्तिष्क में इतना ही ज़ोर था की हज़ार खयालात बाँट जाएँ?
क्या कमज़ोरों में नाम शुमार हो ये ज़लालत मुझको काफी थी?
सौ तीर मेरी छाती पर क्या हालत मुझको राज़ी थी?
क्या जवाब मेरे मुझतक रहेंगे?
ये शब्द भी जो कहेंगे सिर्फ मुझसे कहेंगे?
या अभी भी आंधी हलकी है?
मैं हूँ सकता उससे झेल अभी?
क्या अभी भी उँगलियों में जान है?
खेल सकता हज़ार पतंगों का खेल अभी?

आँधी के पीछे कहीं सूरज भी होगा,
नीचे तो बास स्याह रात है।
ज़ख़्मों मे दर्द है बेशुमार,
पर जख्म भी एक दौर-ए-हयात है।
छलांग का सुकून है अपनी जगह,
पर नूर-ए-शहादत में कुछ अलग बात है।
हजार तीर होंगे छाती पर मेरे मगर,
मेरा हौसला-ए-मोहब्बत मेरे साथ है।


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