ज्ञान का दीप लिए खड़ा

By Sonakshi Srivastava

ज्ञान की खोज में भटकता एक अनुसंधान वीर
विकल हो बहे जाते थे दृग से नीर
तभी दृष्टिगत हुआ एक विशाल वट वृक्ष सा
रहस्यमयी आकृति लिए दीप था खड़ा ॥

प्रफुल्लित हो उठा मेरा मन - निराकार,
दीप्त हो सकेगा अब जीवन संसार ।
अज्ञानता को हटा सकूँगा इस दीप के प्रकाश से,
खड़ा है जो राह मेरी देखता विश्वास से ।

किन्तु यह आकृति क्या स्वीकार करेगी,
ऐसी चाह में भटक रहे मन को राह मिलेगी।
विश्वास होते ही सुनाई दिया दिव्य नाद,
अनमोल निधि की चाह में तू क्यों है उदास।

वह अलौकिक दिव्य वाणी, आत्मविश्वास जगाती थी
मुझ जैसे भटके हुए की राह दिखाती थी
कौन हो तुम, तड़प रहे हो, क्या चाह तुम्हारी
प्रश्न सुनकर आशा की किरण मन में जागी

विनम्रता से हाथ जोड़ शीश नवाया,
स्वयं की अनुसंधान वीर, ज्ञान पिपासु बताया।
खोज रहा मैं नीर, जो मन की तारे,
क्या पा जाऊँगा ज्ञान का कलश जो पास तुम्हारे ?

वह दिव्य, अलौकिक तेज थोड़ा मुस्कुराया,
ज्ञान का दीप मुझे देने का उत्साह दिखाया।
प्रसन्नवदन था उस प्रश्न का वक्ता,
मेरे मन में बढ़ रही थी उत्सुकता ।

अगर वास्तविक हो तुम अनुसंधान वीर,
चाहिए तुम्हे ज्ञान का नीर
तो अपनी योग्यता दिखलाओ
मेरे इन प्रश्नों का उत्तर बतलाओ ।

मुझे बताओ उन गुरुओं का नाम,
जिनसे चलता रहा है संसार का विधान |
सृष्टि जिनकी ऋणी रही है सदा,
आज उनका नाम है कितनों को पता?

मैं अचकचाया, झिझका और बताया,
वेदों के ज्ञानी, पुराणों के ज्ञाता,
रघुकुल के राजगुरू सप्तर्षि वसिष्ठ ज्ञान-विधाता ।
जनक, वाल्मीकि क्या मैं नाम गिनाऊँ,
सतयुग में यदि में जन्म पा जाऊँ।

प्रसन्न हो, मैंने आगे बताया,
द्वापर में संदीपन, व्यास का नाम आया
गीता के रचयिता श्रीकृष्ण को कोई क्यों भूले,
आज भी 'गीता' के ज्ञान से समस्त पाप धुले ।

नवभारत की नीव रखी उन गुरु ने
बना चंद्रगुप्त को शिष्य महान चार्थक्य ने
परमहंस के अनुमोदन से विवेकानंद ने ज्ञान पाया।
ज्ञान की धारा अविरल बह रही,
क्या मुझे भी सच्चा गुरू मिलेगा सही?

ज्ञान के इच्छुक, निष्ठावान शिष्य
और विद्यादान गुरू में श्रेष्ठ कौन, यह बतलाओ
इस पहेली को सुलझा कर सच्चे अनुसंधानवीर कहलाओ
वह शिष्य, अर्जुन भांति, जो सदैव रहता निष्ठावान
या गुरु, द्रोणाचार्य जैसा, जो देता सब कुछ दान
सौभाग्यशाली कौन कहलाए, मुझको बतलाओ

अचंभित हुआ मैं, प्रश्न है कैसा अनूठा,
क्या द्रोणाचार्य और अर्जुन में आज मतभेद हो उठा ?
वह गुरु, जो शिष्य की कला को निखारता है,
या वह शिष्य, जो गुरु की राह को बुहारता है ।

सौभाग्यशाली तो द्रोण भी थे, अर्जुन को पाकर
फिर कैसी उलझन है इस प्रश्न में आकर
युगों-युगों से गुरु श्रेष्ठ होते आए हैं,
पर बिना शिष्यों के क्या गुरु कहलाए हैं?

यदि निष्ठावान शिष्यों ने इच्छादीप नहीं लाए होते,
तो गुरुओं ने ज्ञानज्योत कैसे फैलाए होते?
यदि स्वीकार नहीं करता सच्चा शिष्य, न बने ज्ञानी,
गुरुओं की क्या स्वीकारी जाएंगी कहानी ?

पर शिष्य को सही राह कौन दिखाएगा?
यदि उसे सच्चा गुरु नहीं मिल पाएगा।
अखंड ज्ञान का दीप एक हाथ से दूसरे हाथ जाता है,
जब संसार में मनुष्य गुरु - शिष्य परंपरा निभाता है।
अशांत, अज्ञानी, अनगढ़ मन को बांधकर
एक शांत, ज्ञानवान मस्तिष्क को गढ़ता है।

यूं तो ज्ञान का अंत नहीं है, पर दीप को निरंतर जलते रहना है,
यही परम‌सत्य है, जो तुमने पहचाना है।
आज तुम्हारी विपासा शांत हो जाएगी,
जब ज्ञान के दीप की आस हाथों में आएगी।

आज जहाँ मैं खड़ा हूँ, कल तुम होगे वहीं,
किसी सच्चे शिष्य की तलाश में,
ज्ञान का दीप लिए खड़ा हाथ में,
ले कर राह दिखाओगे,
मेरी भांति तुम भी फिर प्रश्नों की झड़ी लगाओगे,
और एक दिवस, सच्चे गुरू कहलाओगे।


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