By Shivam Kumar
क्यों छिपाऊ मैं अपने तन-बदन को क्या मुझे आज़ादी नहीं अपने ढंग से जीने की
क्यों मैं सुनु इन लोगों की जो मुझे ये बोलकर घर से बाहर निकलने नहीं देते -" अरे समाज में रह रही हो लोग देखेंगे तो क्या बोलेंगे, लाज सर्म है की नहीं "
मैं इनसे ये पूछना चाहती हूँ कि-जब तपती गर्मी में भी मैंने बुरखा पहना तो क्यों मेरा सोसण हुआ
जब कड़ी सर्दी में भी मैंने अपने बदन को ढका रखा तो कैसे मेरा बलात्कार हुआ
क्यों मेरी गलती न होने पर भी मेरा ही समाज से तिरस्कार हुआ
मेरे आँखों से आँसू निकलते रहे लेकिन फिर भी कैसे मेरी इज़्ज़त का व्यापार हुआ हा बताओ,
क्यों मेरा बलात्कार हुआ, क्यों मेरा ही बलात्कार हुआ !
मैं कैसे बताऊ इन लोगों की मेरे साथ समाज के दरिंदो ने क्या-क्या किया है,
मेरे तन-बदन को अपने जानवरो जैसे नाखुनो से किस कदर खुरेध दिया है
मुझ पर तेज़ाब फेककर मेरे चेहरे के साथ मेरा स्वाभिमान भी जला दिया है,
मैं तोह समाज कि हिसाब से ही चल रही थी तो क्यों समाज मुझको ही कह रहा था -"ये लड़की ना हाथ से निकल रही थी"
वो समाज जिसे मेरे जख्मो पे मरहम लगाना चाहिए था वो उनपे नमक रगड़ था,
मुझे बदजात बदजात कहके मेरी जीने की उम्मीद को तोड़ रहा था
मैं जिस भी गली से निकलती वो मुझे गंदी नजरो से देख रहा था
अरे ,मैं तोह समाज के हिसाब से ही चल रही थी तोह क्यों ये सब मेरे साथ ही हो रहा था
और दूसरी ओर वो बालात्कारी समाज में आराम से घूम रहा था,
मैंने तोह बस 'न' ही बोली थी और 'न' के मतलब न ही होता है
शायद मर्द ये घिनौनी हरकत करने से पहले ये भूल जाता है कि उसको जन्म एक औरत ने ही दिया है
नौ माह तक असहनीय पीड़ा सहकर भी एक औरत ने उसे अपने कोंख में रखा है
इतना दर्द सेहती है ' एक औरत ', जो एक मर्द महसूस भी नहीं कर सकता
इसलिए जब भी एक औरत, बेटी, बहन कोई भी न बोले, तो कोई भी मर्द उस 'न' को हाँ में तब्दील नहीं कर सकता, सच बोल रहा हूँ , कोई नहीं , कोई 'भी' नहीं I