सांझा चूल्हा

By Poonam Srivastava

सांझे चूल्हे की बात जब होती ,बचपन याद है आता, दादा दादी बुआ चाचा का, प्यार बड़ा तड़पाता !!
न होता था तेरा मेरा, सबका सब कुछ होता,
कजिन चचेरे का मतलब तो,शहरो में समझा जाता !!

सुबह सबेरे चूल्हा जलता मां, चाची मिल कर पकाती चाचा भैया सब्जी लाते ,बुआ हमें पढ़ाती !
चूल्हा दो बर्नर का था ,खीर बनती कभी सिवइयां
मां बनाती थी सब्जी दाल, चाची सेकती थी रोटियां !!

पुरुष बच्चो की सजती थाली,थी परसती घर की बेटियां
बाद में औरते खाती संग में, लेकर अचार,खटाइयां!!

गिनकर घर में बनती नही, थी कभी भी रोटियां,
अक्सर जो आता खाकर जाता,खप जाती थी रोटियां!!

त्योहारों पर मानो जैसे, मेला सा था लगता ,
पकवानों की खुशबू से मन, गदगद था हो जाता !
साझे का दुख था होता, सुख भी साझे का होता
साझे खुशियों की बात निराली, उस जैसा कुछ न होता !!

मोहल्ले गलियारे के सारे ,ताऊ चाचा भैया होते
अपनो से हमको वो बिल्कुल,कम नहीं समझते!!

नानी के घर मामा मौसी ,हम सभी संग में रहते
साझे चूल्हे का आनंद वहां भी ,हमसब खूब थे लेते !!

अद्भुत प्यार असीम ममता की, छांव हमे थी मिलती,
अब वो नजारा इस युग में, विरले ही है मिलती!!
शादी व्याह में पंद्रह दिन,पूर्व सभी आ जाते
रिश्तेदारों के घर में तबसे, चूल्हे जलने बंद हो जाते !!

मिलकर बनती थी पूरियां, कोई सेकता कोई बेलता
महीनों से चलता संगीत, था नही एक दिन होता!
पीहर लड़की आए तो, मोहल्ले में रौनक आती,
हर घर में बराबर की ,खुशियां थी छा जाती!!

आज भी कही कहीं ,सांझा चूल्हा है जलता
पर अब वो बात नही उसमे, जो बात था पहले होता !!
साझा चूल्हा है पर, दिल साझा ना होता
इस स्वार्थी युग में किसी का,
कोई सगा न होता !!

पूनम श्रीवास्तव
नवी मुम्बई
महाराष्ट्र


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