सहर्ष स्वीकार किया

By Deepti Priya

जब चार दीवारों में बंद थी
कहा “तू मेरी बेटी है“,
मैंने सहर्ष स्वीकार किया!

जब हाथों में हाथ मिला
कहा “तू मेरी पत्नी है“,
मैंने सहर्ष स्वीकार किया!

नव्य प्रज्वलित किया द्वार पर
कहा “मेरे पुत्र की गृहणी है“,
हाँ मैंने स्वीकार किया!

मेरी काया मेरे अंदर
जब धरती पर उत्पन्न हुई,
कहा “तू मेरी जननी है“,
मैंने सहर्ष स्वीकार किया!

बेटी, बहन, जननी, भार्या
हाँ मैंने स्वीकार किया!

एक अभिलाषा, हो स्वीकार मैं
क्या मुझको स्वीकार किया?

मेरे अंतः के उपवन के
कुसुम कली क्यों तार किया?
क्या मैं सिर्फ एक रिश्ता हूँ,
मेरी कोई कीर्ति नहीं?
कुमकुम, मेहँदी, कंगन, बिंदिया“;
क्या मैं मेरा श्रृंगार नहीं!?

रिश्तों से जकड़ी हुई सी
क्या मैं एक पंछी नहीं?
क्या मुझ में यमुना, गंगा,
काली, युवती,
श्री, आद्या, लक्ष्मी
या मेरी छाया दिखी?

मैं भी मेरा ओजस हूँ
मुझ में भी मैं जीवित हूँ
मेरी एक पहचान है
क्रांति नहीं, मैं काँती हूँ
गर तुम आँखें खोलोगे
एक नई आभा देखोगे
काँती व शांति का संगम
सहसा नलिन को देखोगे!!

This poem has been longlisted in Wingword Poetry Competition 2024 to be published in the annual anthology.


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