मज़दूर

By Preeti Saru 

 

नज़्म
शिर्षक, मज़दूर

रात के माथे पे हर रोज़ सहर रखता हूं,
मौत की वादी में जीने का हुनर रखता हूं।

इक नहीं दो नहीं तीन निशानी मेरी,
फावड़ा बेलचा ये टोप कहानी मेरी,

मैं हूं पानी की तरह लोहा बहाने वाला,
वक़्त के बोझ को कांधे पे उठाने वाला,

फूल की शाख से पत्थर का जिगर काटूं मैं,
अपनी मायूसी को बच्चों की तरह डांटू मैं,

आग से होता है दुश्वार जब जीना मेरा,
बर्फ़ बन जाता है उस वक़्त पसीना मेरा,

एक एक पग पे यहां मौत खड़ी रहती है,
पहरेदारी मगर हिम्मत की बड़ी रहती है,

इस हक़ीक़त से यहां जो कोई हट जाता है,
ढेर में लोहे के इंसान वो पट जाता है,

कोई भी ग़म हो ख़ुशी साथ नहीं लाता हूं,
लौट के तब तो सलामत कहीं घ़र जाता हूं,

जिस्म फ़ौलाद का पत्थर का जिगर रखता हूं,
मौत की वादी में जीने का हुनर रखता हूं।


1 comment

  • Keep it up mom
    Khoob tarakki karo ap
    Bhut khoobsurat kavita hai❤️

    Vishnu

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