प्रतिक्रमण

BY DR. PRADNYA AASHIRVAD 

कभी कभीं आईनें में

मैं झाँकती हूँ ख़ुद को 

एक अलग सी ही मैं 

नज़र आती हूँ ख़ुदको । 

 

नहीं समझ पाती हूँ 

मुझ में कौन कौन बसा हैं 

कोशिश करती हूँ ढूँढने की 

मुझ में किसकी परछाईं हैं । 

 

दूर दूर तक निहारती हूँ 

ख़ुद को ही शीशे में 

कोशिश करती हूँ 

आँखों को आँखों से मिलाने की ख़ुद के । 

 

आज़माती हूँ ख़ुदको ही 

और याद आती हैं 

एक एक कर के कईं बातें ।

 

कुछ बातों का मन को 

छू जाता हैं पछतावा 

और कुछ यादों से 

महका हैं मन खुशबूसा । 

 

कुछ बातों से 

हो जाती हूँ बेबस 

और मन में मेरे 

छा जाता हैं सन्नाटासा । 

 

एक दो बातों से तों 

आयी हैं मुझे अपनी हीं घीन भी 

और ख़ुद से भी 

मैं आँखें नहीं मिला पायीं । 

 

जानती नहीं असुरक्षा थी की 

अल्हड़ मन की अंगड़ाइयाँ 

पर सोचती हूँ तो 

आज भी छा जाती हैं बेचैनी 

और लगता हैं ग़म भी 

की कुछ रिश्तों- हालतों को 

मैं सहीं नहीं कर पायी ।

 

ख़ुद को कोसती हूँ 

और आईना छुपा देती हूँ 

तकिये के नीचे कई 

और बेचैनीं में आँखें मूँद लेती हूँ यूँ ही । 

 

पर सोचती हूँ की रिश्तें या हालात 

सिर्फ़ अकेले से ही नहीं होते हैं कभीं । 

मैंने अपनी ज़िम्मेदारियाँ तों 

शिद्दत से निभायी ही थीं । 

 

फिर थोड़ा सुकून पा लेती हूँ 

और चैन की एक साँस सीने में भर लेती हूँ 

कुछ ग़लतियों को मेरे 

मैं ही माफ़ कर देती हूँ 

क्यूँ की कोई भी ग़लती 

मेरे अकेली की तो थीं ही नहीं । 

 

फिर से आईना हाथ ले कर 

हलके से उसे पोंछ लेती हूँ 

एक बार फिर आईनें में 

ख़ुद को मैं पा लेती हूँ 

और फिर मुस्कुराने लगतीं हूँ बेदाग़ सी।


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