By Laudeep Singh
रूह के दुःख सहूँ कि बदन के दुःख सहूँ
परदेस में रह कर भी वतन के दुःख सहूँ
न चाहते हुए भी पहले दलीलें पेश करूँ
और फिर माथे की शिकन के दुःख सहूँ
परिंद की तरह निकल आऊँ पिंजरे से
आज़ाद वादियों में घुटन के दुःख सहूँ
रात काटूँ चाँद और तारों की छाँव में
सुबह की पहली किरन के दुःख सहूँ
सर-ता-पा चूम लूँ उस का सारा बदन
सीने पे नाख़ुन की चुभन के दुःख सहूँ
नहा कर लिपट जाऊँ मैं कफ़न से 'लौ'
आग में जलते हुए कफ़न के दुःख सहूँ
सर-ता-पा - सर से पाँव तक ।
ये बहुत ही खूबसूरत है।