रघुकुल रीत

By Jagruti Begani

रघुकुल रीत
जाने कैसी रही होगी व्यथा
अयोध्या नरेश के हृदय की
अश्रुओं से लिखी होगी कथा
मां कौशल्या ने अपने दुःख की

जब राम जैसा सपूत उनको
छोड़ कर चला गया वनवास
सीता सी सुकोमल वधु को
कांटों में बनाना पड़ा आवास

धन्य धन्य वो लक्ष्मण जिसने
भाई के लिए सबकुछ त्यागा
नवविवाहिता उर्मिला से उसने
चौदह वर्षों का विरह मांगा

भरत को नहीं था ये स्वीकार
मां की करनी से थे शर्मसार
बंध भाई के वचन से लेकिन
किया कार्य मन पर रख भार

अयोध्या में छाया अंधकार
प्रजा में हो गया हाहाकार
विचलित कर दे जो मन को
ऐसा दृश्य था नगर के द्वार

राम राम की करते पुकार
जनता ने नहीं मानी हार
विनती करते रहे बारंबार
रुक जाओ हमारे तारणहार

राम ने रखा वचन का मान
बिना विलंब किया प्रस्थान
मधुर स्मित था मुख पर उनके
देखा नहीं फिर पीछे मुड़ के

रघुकुल रीत का मान बचाया
प्राणों से बढ़कर वचन निभाया
सारे सुखों का करके त्याग
कर्तव्य पथ पर कदम बढ़ाया

युगों युगों तक स्मरण रहे जो
प्रभु श्री राम ने वो संदेश दिया
प्राण जाए पर वचन ना जाए
कथनी नही करनी से सिखाया


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