By Utkarsh Kapoor
लज्जा मेरी, अभिमान तेरा,
पर्दा मेरा, सम्मान तेरा।
हर चाहत पर लगाम लगी,
जाली अमान, फ़रमान बना।
मेरे कपड़ों से क्यों तोला है,
तेरी इज़्ज़त इस दामन से क्यों?
नापे मेरे घर की इज़्ज़त क्यों,
तू घूंघट की लंबाई से?
निगाह मुझ पर ही रखता है,
पाबंद मुझे ही करता है।
क्यों नुमाइश अमान की करता है,
गुमनाम मुझे बना कर तू?
हाफ़िज़ बना कब मेरा तू,
मुनहसिर तुझ पर मैं कब हुई?
ज्वाला मैं हूँ खुद झाँसी की,
फूले हूँ हर अभिलाषी की।
आया तू भी उस मिट्टी से,
मर्यादा का जहां बाण चढ़ा,
मेरे बिन न पूरा राम हुआ,
कौशल्या मैं, सीता हूँ मैं।
निर्माण तेरा जब मुझ से है,
पूजे मंदिर-मस्जिद में मुझे।
मेरे नाम के सजदे करता है,
अकीदत मेरी करता है।
फिर क्यों छुपा कर रखता है,
मेरी आँख झुका कर रखता है?
पहचान कर ओझल मेरी तू,
खुदाई इसे बुलाता है।
मेरी हस्ती तेरे गिलाफ छुपी,
नबिना खुदा भी लगता है।
बदनीयत तेरा समाज हुआ,
हिजाब मुझे क्यों ढकता है?
फ़ितूर नाजायज़ तेरा है,
नापाक इरादे तेरे हैं,
नासाज़ मुझे क्यों करता है?
जफ़ा ज़माना करता है,
गुलामी का है नाम नया।
इज़्ज़त, लिहाज़ की चादर में,
घुट कर मरा हर ख्वाब मेरा।
A phenomenal piece of ode by Utkarsh Kapoor, super proudd
Beautifully crafted and loved the word play!!! Way to goo❤️
Such a heartfelt poem, loved it!
Amazing poem:) really brought out the emotions in me!