स्त्री व्यथा

By Amitu Sharma

"क्या गुजरी है मेरी रूह पर
यहां किसको सुनाऊं मैं?
मेरे कण-कण के ज़ख्मों को
भला कैसे दिखाऊं मैं?
मेरी देह की चमड़ी को
यहां किस-किसने नोंचा है?
यहां कोई नहीं मेरा
किसे अपना बताऊं मैं?

मेरी ही बाप ने छीनी
मेरे कौमार्य की निशानी
मेरे भाई ने है लूटी
मेरे बचपन में जवानी
मेरे खुद के ही बेटे को
मेरे दो अंग भाते हैं
यहां प्रेयसी नहीं प्रेमी
रखैले ही बनाते हैं
सभी को नोंच खाना है
अस्मत को मेरी हर पल
सभी भूखे हैं देहो के
लाज कैसे बचाऊ मैं?

मेरी सीमाओं के किस्से
मुझे ऐसे सुनाते हैं
बाहर खतरा दिखाते हैं
घरों में नोंच खाते हैं
कभी अबला बनाते हैं
कभी कुलटा बताते हैं
घरों की इन दीवारों में
मुझे जिन्दा जलाते हैं
ये झूठी शान के महल
खड़े है मेरी लाशों पर
शरीफों की शराफत को
भला कब तक छिपाऊं मैं?

नहीं भाती इन्हें नारी
खुले ऊंचे विचारों की
वो इज्जतदार जरूरत हो
जिसे इनके सहारों की
हटा नकाब है इनका
ना अब झांसें में आऊंगी
मैं दो-दो घर नहीं इनके
स्वयं का घर बनाऊंगी
ये कीचड़ फेंकते आये
देख मेरी उड़ानों को
रिवाजो की चिताओं में
स्वयं को क्यों जलाऊं मैं?
क्या गुजरी है मेरी रूह पर?
यहां किसको सुनाऊं मैं?"


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