By Abhishek Agarwal
ज़िन्दगी एक मुद्दत से है मुझको तेरी तलाश
जी तो रहा हूँ पर खुद से हूँ जुदा
जो नही है मेरा क्यों उस पे हूँ फ़िदा
क्यों बुन रहा हूँ ख़्वाब जो हैं बेगाने
क्यों चुन रहा हूँ फूल जो लगे हैं मुरझाने
चाहतों के भँवर में कुछ इस तरह घिर गया हूँ मैं
कि कहीं कहीं तो खुद की नजर से भी गिर गया हूँ मैं
क्या खोया क्या पाया इसका नही है अंदाज मुझे
इस भागा दौड़ी में बस एक सुकून की है तलाश मुझे.
एक सुकून -
जो मिलता है जाड़े की गुनगुनी धूप में
जो मिलता है बच्चे की मीठी किलकारी के रूप में
जो मिलता है माँ-बाप के आशीर्वाद की छाँव में
जो मिलता है प्रेयसी की नरम बाँहों में.
ये ढूँढता हूँ सब जो खो गया है मुझसे कहीं
हूँ भटक रहा ऐसे जैसे मेरी कोई मंज़िल ही नहीं.
कब तक यूँ ही इस भ्रम को सीने से लगाऊँगा मैं
कब तक यूँ ही अपनी चाहतों को अपनी मजबूरियाँ बनाऊँगा मैं
क्या कभी उतार पाऊँगा इन मजबूरियों का बोझ सिर से
क्या कभी लौटा पाऊँगा बचपन की उस हँसी को फिर से
या रह जाऊँगा अपने ही ख्वाइशों के जाल में जकड़ कर इस क़दर
की ख़त्म हो जाऊँगा ज़िन्दगी तुझसे हो के बेख़बर.
ज़िन्दगी एक मुद्दत से है मुझको तेरी तलाश
किसी दिन मेरे घर भी आती तू काश
तो खोल लेता मैं भी ख़ुशियों का वो पिटारा
जिससे बहुत पहले ही मैंने कर लिया था किनारा.
ज़िन्दगी एक मुद्दत से है मुझको तेरी तलाश.