BY DAKSHITA BHATIA
गुज़ारे लम्हे अनगिनत, माँ की गोद सी सरहद लगती है
ये माटी मेरी रोज़ दुल्हन सा, एक जंग के लिए सजती है
यादें तुम्हारी आकर, अब हवा हो जाती है
रातों को तुम्हारी चिट्ठियां, एक फ़ौजी को भी रुलाती है
"पर ये दिल मेरा अब कश्मीर हो चला है
ख़ामोशी से अब घबराता नहीं"
हाँ, गोलियों की आवाज़ से सुबह,
बम से लिपटी रातें हैं
करने को है बातें कई
नजाने, खाक में मिलती रोज़ कितनी मुलाक़ातें हैं
तू जीती तो, खुदको हार के जीता था..
तेरी हर एक याद को इन्तेज़ार से जीता था..
"पर ये दिल मेरा अब कश्मीर हो चला है
ख़ामोशी से अब घबराता नहीं"
कश्मीर सा बटता दिल मेरा,
एक पल उन खेतों में लहराता है
तुम्हारे प्यार को तरसता,
एक पल दुश्मन को धूल चटाता है l
जाने जाती है , लाशें आती हैं
मैदान-ऐ-जंग अब घर सा लगता है
"पर ये दिल मेरा अब कश्मीर हो चला है
ख़ामोशी से अब घबराता नहीं"
Myself Dakshita Bhatia. I lost me in discovering what art really is. And I am still nowhere near it. They say you can’t find yourself at the same place where you lost, say if not in art, then maybe I’m better off a mystery. I am chaos and peace sometimes, a hurricane mostly and grief quiet often.