By Rohit Guupta
वो एक सफ़र ही था,
जिसमें डर को बड़े करीब से देखा था,
पानी के बहाव में मैं खड़ा था,
चट्टानों से लोहा ले रहा था।
बात ज़्यादा पुरानी नहीं है,
सिर्फ यही एक कहानी नहीं है,
सफ़र तो कितने ही तय किए हैं,
पर इस जैसा कोई रोचक नहीं है।
पहले से तय तिथि पर हम,
मैं और मेरा दोस्त "मनम",
निकले थे पूरे जोश में, सैर को,
लेकर गाड़ी, पहुँचे अपने गंतव्य को।
कुछ पैदल चला, कुछ मन में सोचा,
गंतव्य की पहले से वृत्त चित्र बना,
पहुँचा तो देखा,
अथाह सागर हिलोरें मार रहा था,
और चट्टान बहाव रोके अड़ा था,
बारी-बारी से जाना हमने तय किया,
पानी में उतरना मैंने शुरू किया,
उठ कर गिरते लहरों के बीच, मैं कदम बढ़ाता चलता रहा,
फिर चट्टानों की बारी आई, पर, विश्वास मेरा अडिग रहा,
कुछ पादप थे चट्टानों पर, फिसला मैं ढ़लाँव में,
लहू लुहान हुआ शरीर, गिरा दो खंडो की गोद में,
उठा, फिर फिसला, फिर उठा, और गिरा मैं,
गिर कर उठता रहा, अपनी ही शान में मैं,
दर्द असहाय थी, पर चेहरे पर शिकन आने न दिया,
प्रकृति ने उस दिन मुझे, ख़ुद से लड़ना सीखा दिया,
उसी शाम था दूसरे शहर भी जाना,
दो वक्त हमने बर्बाद न किया,
ख़ुशी-ख़ुशी मंज़िल की ओर, कदम अपने बढ़ा दिया।
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Travelling'
Very nice write up !
Ennanae purila🤣🤣😂
So nicely you have described water. 👏🏻 Well done