By Bhavuk Sharma
कई साल पहले किसी ने मेरे माथे पे एक लकीर खींच दी थी
जिससे दो हिस्सों में बंट गया था मेरा जिस्म
मैंने इसे कुबूल कर लिया था ये सोच कर कि,
जो हिस्सा अलग हुआ है उसमें अल्सर था
कुछ साल निकल भी गए ख़ुश-उस्लूबी से
कि मेरा दिमाग दाएं या बाएं नहीं पर बीच में था
कुछ सत्रह साल बाद से दिमाग ने दाईं सिम्त चलना शुरू किया
और अब दोस्त अक़्सर मुझे पाते हैं
अपने ही जिगर,पेट या आंतों से लड़ते हुए
कि मैं दिल की जगह दिमाग से सोचता हूं
और दिमाग की तक़्सीम को सत्तर से ज़ाइद साल हो चले हैं
ये लड़ाई शायद इसलिए भी है कि मेरे सहन तक
अब तक नहीं आई बोस्निया-हर्ज़गोविना की तस्वीर
और बुरुंडी-रवांडा का मफ़्हूम हर सिम्त मुझसे बहुत दूर है
साथ ही इतनी बड़ी हो चली है मेरे घर पे रखी राम की तस्वीर
कि वो बर्दाश्त नहीं कर पाती किसी और को अपने साथ
उसे बनाने वालों ने नफ़रत की तेशा-ज़नी से बनाया है उसे
फिर भी कभी रात को अचानक उठता हूं अगर
तो पाता हूं ख़ुद को पेशावर की सब्ज़ राहों में जब तक
स्टेशन का ऐलान बता नहीं देता कि ये हज़ारीबाग़ से पटना आई ट्रेन का हॉर्न है
और जब कभी मुझे अपने दिमाग के बाकी हिस्से की फ़िक्र होती है
तब मुसलसल फ़ोन लगाने लगता हूं लॉर्ड माउंटबेटन को
सिर्फ़ ये सुनने के लिए कि- आपके मतलूबा नंबर से जवाब मौसूल नहीं हो पा रहा है।